Friday, March 13, 2009
Friday, March 6, 2009
पत्रकारिता में बढता बाज़ार
आज के सामाजिक परिवेश के साथ में बढता हुआ बाज़ार अब पत्रकारिता में भी साफ़ साफ़ नज़र आने लगा है हिन्दी के समाचार पत्रो को देखे या अंग्रेज़ी के समाचार पत्रों को दोनों में बाज़ार का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है लेकिन के हिन्दी समाचार पत्रों में अंग्रेज़ी के मुकाबले कम ही विज्ञापन मिलेंगे अंग्रेज़ी के अख़बारों में फिल्मों की समीक्षा से लेकर पेज थ्री पार्टी तक सब कुछ चपता है लेकिन साथ ही उसमे किसी उत्पाद की बिक्री को एक संचार बनने की कला भी होती होती अंग्रेज़ी के अख़बारों में बॉलीवुड के साथ साथ हॉलीवुड की प्रमुख खबरे भी छप जाती है हिन्दी के अखबारों की तरह अंग्रेज़ी के अख़बारों ने ख़ुद को केवल भारत तक सीमित नही किया है हिन्दी के अख़बारों में कभी कभार एक आत न्यूज़ छप जाती है जबकि अंग्रेज़ी अख़बारों के सुप्प्लेमेंतारी वाला आखिरी पेज ज़यादातर हॉलीवुड की खबरों से भरा होता है अगर हम दोनों अख़बारों में तुलना करें तो अंग्रेज़ी से ज़यादा हिन्दी के अख़बार की क्वालिटी ख़राब होगी हिन्दी के अख़बारों में चटपटी ख़बरों को बेचा जाता है वही अंग्रेज़ी में चटपटी ख़बरों की संख्या हिन्दी के मुकाबले कम होती है खैर इस तरह की ख़बरों से ख़ुद हिन्दी अख़बारों का लेवल भी घटने लगता है
Thursday, March 5, 2009
अभी भी ज़रूरत है
हमारे देश को आज़ादी दिलाने में स्वतंत्राता आंदोलन की विशेष भूमिका रही।अंग्रेजो के विरूद्ध चले आंदोलन ने 100 साल के शासन को उखाड़ कर फेक दिया।1947 के बाद की स्थिति ने सारे सपनों को तोड़ दिया।स्वतंत्राता के बाद भी कई आंदोलन उठे जिन्होंने भारतीय व्यवस्था को सुधारने का प्रयास किया।1947 के लिए भारत में भाषा जाति क्षेत्राीय सीमाओं से बाहर आकर आंदोलन की प्रक्रिया चली। लेकिन इसके बाद समाज भाषा जाति क्षेत्राीय सीमाओं में ही विभाजित हो गया। आज़ादी के बाद राज्यों के पुनर्गठन की मांग चली।दक्षिण में मलयालम तमिल और उत्तर में हरियाणा पंजाबी भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग चली।इसके माध्यम से वह आर्थिक व्यवस्था में सुधार और सामाजिक अव्यवस्था को खत्म करना चाहते थे।1960 के दशक में व्यवस्था बिगड़ने लगी।राज्यों में अशंाति उत्पन्न होने लगी।सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को सुधारने के लिए सरकार द्वारा कई कार्यक्रम किए गए लेकिन इनका परिणाम नकारात्मक ही रहा।देश में गरीबी भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा था।1960 में कांग्रेस में पूंजीपतियों के वर्चस्व के कारण समाज में गहरा असंतोष उत्पन्न हो रहा था।1960 में नक्सल आंदोलन जंगलो की कटाई तक सीमित था।70 तक मध्य वर्गीय बुद्विजीवियों और गरीब दलित और आदिवासियों को प्रभावित करने लगा। सरकार का एक तानाशाही रूप 1975 के आपातकाल में स्पष्ट दिखाई देने लगा।इस समय जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्रों का आंदोलन उभर कर आया ।इसका यह फायदा हुआ कि चुनाव में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला और मिली जुली सरकार का पहली बार उदय हुआ।इस तरह एक नई राजनीति हमारे सामने आई।1980 में पंजाब में हरि क्रांति के विरोध में आंदोलन उभरा जिसका नेतृत्व अकाली दल ने किया।यह फिर धार्मिक आंदोलन और आतंकवाइ में परिवर्तित हो गया जिसका परिणाम आॅपरेशन ब्लू स्टार और इन्दिरा गांधी की हत्या है। लेकिन बाद में यह भी राजनीति व्यवस्था का ही हिस्सा हो गए।1980 के दशक में कश्मीर में हिंसा प्रारंभ हो गयी थी।1990 के दशक में हिंसा ने विराट रूप ले लिया था और उतर पूर्वी इलाको में भी हिंसक गतिविधियां आरंभ हो गयी थी।जिनका उपाय राजनीति प्रक्रिया द्वारा निकला लेकिन कश्मीर का कोई समाधान नहीं निकल सका। इस बार ही 2008 में ही वहां सबसे ज्यादा मतदान किए गए।शायद लोगों का विश्वास अब भारत की राजनीति पर होने लगा है भाषा दलित और महिला को लेकर भी कई आंदोलन हुए या हो रहे है।इनके कारण कला साहित्य और शिक्षा के क्षेत्रा में इनकी भागीदारी तो बढ़ी लेकिन इतने साल में आज भी उन्हें वास्तविक अधिकार प्रापत नहीं हो सका।डाॅ अम्बेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन तो किया गया किंतु आज भी उनकी स्थिति में कुछ खास परिवर्तन नहीं आए भाषा को लेकर एक ऐसी मुहिम छिड़ गई है जिसने देश की एकता और अखण्डता पर प्रश्न चिहृन लगा दिया है।क्षेत्राीय या भाषा आंदोलन उभरता तो है लेकिन बाद वह भी राजनीति का हिस्सा बन जाते है।महिला आरक्षण देकर उन्हें हक देने की बात करते है लेकिन समाज में उन्हें आज भी अधिकारों से वंचित रखा जाता है।महात्मा गांधी ने जिन्हें हरिजन और वास्तविक समाज कहा उन्ही को अधिकार प्राप्त नहीं है।इसलिए समाज में एक ऐसे आंदोलन की ज़रूरत है जो समाज से इस भेदभाव को मिटा सके लेकिन कोई हिंसक रूप न ल क्योकि हिंसा कोई समाधान नहीं है।
आगरा का मेला
हमारा देष में सभ्यता और संस्कृति की भरमार है।भारत प्रत्येक राज्य में कोई न कोई संास्कृतिक त्योहार अवष्य होतेे है।भारत में लाखों त्योहार मनाए जाते है।ऐसे ही आगरा भी है जिसे कुछ लोग केवल षाहजहा के ताजमहल के लिए ही आगरा को जानते है ।लेकिन मथुरा और वृंदावन से आगे स्थित आगरा मंदिरोत्सव और धार्मिकोत्सव के लिए भी उतना ही प्रसिद्व है। यहां पर दाउजी का मेला कंस लीला जट देवी मेला ग्वाल बाबला होली मिलाप कैलाष मेला काली का मेला आदि मनाए जाते है। इसके साथ यहां पर एक मेला सबसे अधिक प्रसिद्व है वो है षीतला देवी का मेला।यही मेला राजस्थान में भी चैत्र मास के कृश्ण पक्ष में मार्च और अप्रैल महीने में होता है। यह राजस्थान में जयपुर में लगता है। आगरा में यह मेला असाढ़ मास में लगता है।यह एक धार्मिक मेला है इसमें मुख्य रूप से षीतला माता की पूजा की जाती है। आगरा और मुंबई रोड पर स्थित षीतला माता के मंदिर में यह मेला लगता है। कईं साल पुराना यह मेला यमुना नदी के तटपर स्थित है। यह मेला मुख्य रूप से इसलिए प्रसिद्व है क्योंकि यहां पर लोग अपने बच्चों के बाल उतरवाने आते है।यहां पर लोग पूजा में हल्वा पूरी चढ़ाते है। लेकिन इसके अतिरिक्त इस मेले में पर्यटक दूर दूर से घूमने आते है। यह मेला एक स्थानीय सांस्कृतिक उत्सव है। वहां के स्थानीय लोगो ं की संस्कृति को यह उत्सव अपनी ओर आकर्शित करता है। यहां की कारीगरी कला संगीत भोजन भी पर्यटक को अपनी ओर आकर्शित करते है। इसके कारण लाखों का व्यापार हर साल किया जाता है।इस मेले के कारण ही एक बार लोग अपनी संस्कृति और सभ्यता से परिचित हो जाते है।
बांग्लादेश से आई महिला की शक्ति
महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई बहुत पुरानी है।पहले केवल अपने परिवार में ही उसका शोषण सालों से होता था। आज अपने जीवन को जीने के लिए भी उसे शोषण को सहना पड़ता है। ऐसी स्थिति हम केवल उन महिलाओं की देखते है जो किसी बड़े क्षेत्रा में काम करती है।लेकिन ऐसी स्थिति उन महिलाओं की भी है जो दूर से यहां काम करने आती है। ऐसी ही कुछ महिलाएं तुकलकाबाद में बंगलादेश से रहनेे आई है। यें सभी कालकाजी से लेकर चितरंजन पार्क तक पूरी मेहनत से सालों से काम कर रही है फिर भी इन्हें आज भी भारतीय समाज में नहीं अपनाया गया । इनके जीवन की कहानी भी निराली है। अपने परिवार को छोड़कर ये यहां पर जीवन यापन कर रही है। इनमे से कुछ से बात करने पर इन्होने अपने जीवन की परेषानियों को बताया। कलकता के नादीया जिले से आई लक्ष्मी ने अपने जीवन की कथा बताई।इन्हें दिल्ली आए ग्यारह साल हो गए है।दिल्ली में आने के बाद इन्होंने अपने पति को छोड़ दिया था। प्रति माह यह तीन से चार हजार कमा लेती है। जिस पर इन्हें अपनी मां बेटी नेत्राहीन बेटे का गुजारा करना पड़ता है। आज की मंहगाई में अपने परिवार को पालना बहुत ही मुष्किल है। यह केवल छठी कक्षा तक पड़ी है इसलिए चाहती है जो इनके साथ हुआ वह अपनी बेटी के साथ न होने दें। इनकी एक इच्छा है अपनी बेटी की षादी की नहीं बल्कि इनकी बेटी पढ़े ताकि वह जीवन में यह सब न करें। हम कितना भी ठुकराए लेकिन यह हमेषा पुरूषवादी समाज रहेगा।ऐसे कईं हादसे इनके साथ भी हुए है। रात कारनेे देर हो जाने या किसी के घर पर काम करने पर इनके साथ दुव्र्यवहार हुआ।इन सब की षिकायत ये कभी किसी से नहीं करती जिसकी वजह है कि वह आदमी इनके और पीछे पड़ जाएगा।इसका उदाहरण देते हुए बताया कि रात को अकेले आते हुए रास्ते में एक गाड़ी खड़ी होती है जिसमें तीन आदमी आने जाने वाली इन महिलाओं के साथ ज़बर्दस्ती करते है।एक आम लड़की के साथ यदि ऐसा हादसा हो तो वह दुबारा उस रास्ते जाने में हिचकिचाए। लेकिन ये निडर होकर वहां काम करती है। कम उम्र में षादी होने के कारण जीवन में बहुत कुछ इन्होंने अपनी हिम्मत से सीखा है।जीवन में हार न मानना और लड़ना तो सीखा लेकिन सामने वाले से अपने अधिकारों की मांग करना नहीं सीख पाए। यह एक परिवार के साथ बाहर जाना चाहती थी ताकि वहां पर ज्यादा कमा कर परिवार का पालन कर सके।इसमें विडंबना देखिए कि उनका वीज़ा इसलिए रद्द कर दिया गया क्योंकि यह एक बंगलादेषी है। एक तो महिला और दूसरी बंगलादेषी आखिर क्यों उनके साथ इस तरह का भेदभाव होता है। कुछ लोगों की गलती की सज़ा उन्हें भुगतनी पड़ती है। यह तो केवल एक ही महिला है ऐसी कईं महिलाएं है जो जीवन गुज़ारने के लिए इन समस्याओं का सामना करती है। पांच साल पहले आई विमला और बीना की यही कहानी है। अपने पूरे परिवार छोटे छोटे वच्चों को छोड़कर वह यहां काम कर रही है। उन्हें कुछ मिले या न मिले बस दिल्ली में सुरक्षा तो ज़रूर मिले। जीवन यापन तो वह मेहनत करके कर लेती है लेकिन उसके लिए सुरक्षा ज़रूरी है।जो उन्हें नहीं मिल पाती। खैर अपने परिवार और बच्चों को छोड़कर उच्च वर्गीय महिला का आना आसान है लेकिन निम्न वर्गीय महिला किस तरह इसमें संतुलन बनाती है ये सराहनीय है।
विकलांगों का साहस
विकलांगता को लेकर हमेशा एक धारणा बनी रही है।आज से नहीं बल्कि कई वर्षो से रही है।कईं सालो से विकलांगों के अधिकार प्राप्त कर लेने की लड़ाई चल रही है।वह सालो साल इस लड़ाई को लड़ते आए हैं।विकंलागों को समाज में अधिकार के लिए एक भारी विद्रोह करना पड़ रहा है।समाज में आज भी लोग समझते है कि विकलंाग व्यक्ति जीवन में कुछ नहीं कर सकता।विकलंागों को हमेषा ही दया और हमदर्दी के सहारे ही जीना चाहिए। वह दूसरों के लिए किसी काम के नहीं होते। समाज में कितने ही आंदोलन हुए।कभी स्वतंत्राता को लेकर तो कभी स्वतंत्राता से मिली तानाषाही को लेकर।कभी जातिवाद को तो कभी महिलाओं को लेकर लेकिन कोई भी आंदोलन विकलंागों के लिए नहीं हुआ।यदि हुआ भी हो तो उसे वह प्रसिद्वि नहीं मिली जो विकलंागों के आधिकार की बात कहे। समाज में कोई भी विकलंागों की बात नहीं सुनना चाहता।समाज के एक खास वर्ग की धारणा है कि विकलंाग इतना असक्षम होता है कि वह अपना काम न कर सके।लेकिन ऐसी धारणा इस बात को भूल जाती है कि यही असक्षम जीवन के प्रति बहुत सक्षम होते है।मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति उतने आत्मविष्वास के साथ काम नहीं का सकता जैसे विकलंाग करता है।वह अपने सच को स्वीकार कर उससे लड़ने की ताकत भी रखता है। विकलंाग जीवन में परिश्रम के महत्व को समझकर स्वीकार करते है।विकलंाग समाज से भी दया और हमदर्दी नहीं बल्कि एक समानता के अधिकार की मंाग कर रहे है।वह चाहते है कि कुछ नहीं बस उन्हें उनसे देष के नागरिक होने के कोई भी अधिकार छीने न जायें। इतने वर्षो से अपने मान सम्मान और अधिकार को बनाये रखने की लड़ाई में वह जीत हासिल कर रहे है।आज उनकी सुविधा के लिए कहीं से तो प्रयास सरकार के माध्यम से किया जा रही है।चाहे वो डी टी सी की नई बसें हो या फिर भूमिगत पथ-विकलंागों के अधिकारों की बात आरम्भ हुई है।यह उनकी बरसों से चली आ रहे गांधीवादी विरोध का परिणाम है।सच भी तो है किजिस देष में आम आदमी को अधिकारों की जरूरत है।
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